भारत और नेपाल के रिश्ते ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और रणनीतिक रूप से बेहद गहरे हैं। लेकिन अब नेपाल उन देशों की कतार में शामिल हो गया है, जहाँ राजनीतिक अस्थिरता और जनविद्रोह ने सरकार को गिरा दिया। इससे भारत की कूटनीतिक और सुरक्षा चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं।

नेपाल में हालात कैसे बिगड़े
प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को इस्तीफ़ा देना पड़ा, जब सोशल मीडिया बैन ने जनता के गुस्से को भड़का दिया। प्रदर्शनों में 20 से अधिक लोग मारे गए और संसद पर धावा बोला गया। नेताओं के घर जलाए गए और सेना को सड़कों पर उतरना पड़ा।
इन घटनाओं ने नेपाल की जनता में गहरे असंतोष को उजागर कर दिया है। लोग सिर्फ़ सरकार से ही नहीं बल्कि पूरे राजनीतिक तंत्र से नाराज़ हैं, क्योंकि तीनों प्रमुख दलों ने जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने में असफलता दिखाई है।
भारत-नेपाल के रिश्तों की नींव
भारत और नेपाल के बीच 1750 किमी लंबी खुली सीमा है, जहाँ लोग बिना वीज़ा-पासपोर्ट के आ-जा सकते हैं। 1950 की शांति और मित्रता संधि के तहत नेपाली नागरिक भारत में स्वतंत्र रूप से रह सकते हैं और काम कर सकते हैं।
करीब 35 लाख नेपाली भारत में रहते हैं, काम करते हैं या पढ़ते हैं। 32,000 गोरखा सैनिक भारतीय सेना में सेवाएँ दे रहे हैं। नेपाल में मुक्तिनाथ, पशुपतिनाथ जैसे धार्मिक स्थल भारतीय श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र हैं।
आर्थिक मोर्चे पर भी नेपाल काफी हद तक भारत पर निर्भर है। नेपाल की ज़रूरत का बड़ा हिस्सा भारत से आयातित तेल, खाद्य सामग्री और दवाओं से पूरा होता है।
भारत की कूटनीतिक चुनौती
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंसा पर दुख जताते हुए नेपाल की स्थिरता को भारत के लिए अहम बताया। लेकिन भारत की स्थिति नाज़ुक है।
नेपाल की जनता मौजूदा राजनीतिक दलों से नाराज़ है और भारत का इन सभी दलों से गहरा रिश्ता रहा है। अगर भारत किसी एक पक्ष के साथ ज़्यादा जुड़ाव दिखाता है, तो उसे नेपाल की जनता के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है।
भारत-चीन प्रतिस्पर्धा और नेपाल
नेपाल हिमालयी पट्टी में स्थित है और चीन के वेस्टर्न थिएटर कमांड के बिल्कुल सामने है। नेपाल का भूगोल भारत के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बेहद अहम है।
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चीन लगातार नेपाल में निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स बढ़ा रहा है।
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बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत चीन ने नेपाल में कई समझौते किए हैं।
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भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा नेपाल में ज़्यादा दिखाई देती है क्योंकि दोनों ही देश उसे अपने प्रभाव क्षेत्र में रखना चाहते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर भारत सतर्क न रहा तो नेपाल में चीन का प्रभाव और गहरा हो सकता है।
नेपाल की आंतरिक राजनीति और अस्थिरता
नेपाल 2008 में राजशाही खत्म करके गणराज्य बना था। लेकिन तब से देश लगातार राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है।
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15 साल में नेपाल में 12 से ज़्यादा बार सरकारें बदली हैं।
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संविधान लागू होने के बाद भी संघीय ढाँचे पर सहमति पूरी तरह से नहीं बनी है।
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युवाओं में बेरोज़गारी और पलायन की समस्या लगातार बढ़ रही है।
यही असंतोष हालिया विद्रोह में साफ झलक रहा है।
भारत के लिए आगे की राह
भारत के सामने कई स्तरों पर चुनौती है:
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कूटनीतिक संतुलन – नेपाल की नई सरकार चाहे जो भी बने, भारत को सभी राजनीतिक दलों और जनता का विश्वास जीतना होगा।
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युवाओं से जुड़ाव – छात्रवृत्ति, रोज़गार और शिक्षा के अवसर बढ़ाकर भारत नेपाली युवाओं के लिए भरोसेमंद साझेदार बन सकता है।
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सुरक्षा और सीमा प्रबंधन – खुली सीमा से अवसर भी हैं और चुनौतियाँ भी। अस्थिरता बढ़ने पर भारत को सीमा पर सुरक्षा इंतज़ाम कड़े करने पड़ सकते हैं।
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चीन के प्रभाव का संतुलन – भारत को निवेश, विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में भी नेपाल को सहयोग देना होगा ताकि चीन का वर्चस्व न बढ़े।
पड़ोस की मुश्किल घड़ी
नेपाल का संकट ऐसे समय आया है जब पाकिस्तान से रिश्ते तल्ख़ हैं, बांग्लादेश में शेख़ हसीना के हटने के बाद तनाव जारी है, म्यांमार गृहयुद्ध में फँसा हुआ है। यानी दक्षिण एशिया में भारत के सामने एक साथ कई मोर्चे खुल गए हैं।
नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता सिर्फ़ उसकी आंतरिक समस्या नहीं है। यह भारत की सुरक्षा, कूटनीति और रणनीतिक योजनाओं पर सीधा असर डालती है। भारत को अब सतर्क और संतुलित रुख अपनाना होगा ताकि नेपाल में शांति और स्थिरता लौटे और पड़ोस में विश्वास कायम रहे।