सुशासन बाबू, सुशांत और बिहार की सियासत 

सुभाष चन्द्र

बिहार विधानसभा का सत्र अवसान हो गया। जनता के मन में लाख किंतु परंतु हो, लेकिन सरकार और विधायी व्यवस्था से जुडे लोग बिहार को विधानसभा चुनाव के लिए स्वयं को तैयार कर चुके हैं। कोरोना और बाढ आम लोगों के लिए है। जो विशेष हैं और जो नियंता की भूमिका में हैं, वे चुनावी नफा नुकसान का गणित बिठाने में लग चुके हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूरी तरह से मुस्तैद हैं चुनाव के लिए। विपक्षी दलों के नेता कोई भी राग अलाप लें, लेकिन नीतीश जिस प्रकार से जनता की नब्ज जानते हैं, उसके अनुसार ही निर्णय लेंगे।
बीते एक सप्ताह से जिस प्रकार से अचानक बिहार सरकार ने बाॅलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत को लेकर स्टैंड दिखाया है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। किसी भी राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने लोगों के लिए सोचे। हालंाकि, इस मामले में जिस प्रकार से कुछ दिनों तक बिहार सरकार खासकर नीतीश कुमार कुछ दिनों तक साइलेंट मोड में रहें, उसको लेकर भी सवाल उठे। अब जब उन्होंने पुलिस को छूट दी। बिहार पुलिस की टीम मुंबई गईं। वहां की सरकार की ओर से जिस प्रकार से पटना के एसएसपी को कोरोना के नाम पर क्वारांटीन किया गया, उसके बाद की बयानबाजी आपने और पूरे देश ने देखा है। हर कोई इसको अपने तरीके से देख और समझ रहा है।
इसके बीच यह सवाल सहज ही उठता है कि अचानक करीब महीना दिन बाद नीतीश कुमार एक्टिव मोड में क्यूं दिखे ? सुशासन बाबू को अचानक सुशांत की याद क्यों आने लगी ? असल में, अब इसमें कोई शक नहीं है कि जिस तरह पिछ्ले विधानसभा चुनाव में डीएनए के बहाने नीतीश कुमार ने बिहारी अस्मिता का का दांव खेला था, इस बार भी उन्होंने सुशांत सिंह राजपूत के नाम पर बिहारी अस्मिता की बिसात बिछा ली। दरअसल, नीतीश कुमार बिहारी प्राइड के खेल के मास्टर हैं।
सूत्रों के अनुसार, सुशांत के केस को लेकर नीतीश कुमार ने अपने अधिकारियों से यह संभावना तलाशने को कहा है कि क्या राज्य सरकार सीधे इस मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई को दे सकती हैं या नहीं। सूत्रों के अनुसार, नीतीश कुमार ने अपने अधिकारियों से कहा है कि अगर सुशांत के परिवार वाले सीबीआई जांच की मांग करते हैं तो उसपर तत्काल प्रभाव से अनुशंसा करें। मालूम हो कि लॉकडाउन के समय राज्य के बाहर रह रहे लोगों की मदद नहीं करने के आरोप झेलने वाले नीतीश कुमार, सुशांत सिंह केस में दिखाना चाहते हैं कि वे बिहार के लड़के के साथ खड़े हैं। पार्टी के एक सीनियर नेता ने एनबीटी से कहा कि अप्रत्यशित रूप से सुशांत सिंह का केस बिहार के लोगों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है।
राजनीतिक हलकों में यह कहा सुना जा रहा है कि उनकी इस बार की बिसात ज्यादा मजबूत दिख रही है। लोग कोरोना, बाढ़ और दूसरी बदहालियो को भूल कर इस खेल में उलझ गए हैं। यह मुद्दा ऐसा है कि विपक्षी दलों के नेता भी सुशासन बाबू के साथ होते दिख रहे हैं। मीडिया को मसाला चाहिए, खासकर खबरिया चैनल को। वह रोज गला फाड फाडकर चिल्लाता है। बहस मुहाबिसे करवाता है। ऐसे में कह सकते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव में जमीनी मुद्दे फिर से जमीन्दोज होने वाले हैं। क्या कभी आपने बिहार के चुनाव में गरीबी और किसानों की समस्याओं पर किसी भी दलों के नेताओं को बोलते सुना है ?
यदि यह कहा जाए कि एक बार फिर बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार अपनी सुशासन बाबू की छवि को भुनाना चाहेंगे, तो कोई गलत नहीं होगा। नीतीश की यूएसपी केवल और केवल उनकी छवि है। इसके अलावा क्या है ? वे जिस जाति से आते हैं, उसकी आबादी बिहार में उतनी नहीं कि पूरी विधानसभा पर विशेष प्रभाव डाल सके। नीतीश कुमार सुशासन बाबू की छवि ही उन्हें हरेक जाति के बीच स्वीकार्य बनाती है। महिलाओं के बीच लोकप्रिय बनाती है।
अब सवाल उठता है कि सुशासन बाबू की सरकार में सरकारी योजनाओं का क्या हाल है ? हाल के कुछ दिनों में वर्चुअली शिलान्यास का दौर शुरू हो चुका है। कुछ परियोजनाएं पूरी हुईं तो उनका उदघाटन भी वीडियो काॅन्फ्रेसिंग के माध्यम से किया गया। बावजूद इसके विपक्षी दल के नेता नीतीश सरकार पर काम नहीं करने का आरोप लगाते हैं। सरकारी अधिकारियों की अकर्मण्यता की बात करते हैं। पिछले कुछ वर्षों से बिहार की नौकरशाही पर नजदीकी निगाह रखने वाले लोग जानते हैं कि बिहार सरकार जब भी किसी क्राइसिस में फंसती है तो उससे निकलने की जिम्मेदारी दो अफसरों को ही दी जाती है। पहले प्रत्यय अमृत हैं, जो अभी स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन जैसे दो महत्वपूर्ण विभागों का जिम्मा संभाल रहे हैं, इससे पहले ऊर्जा विभाग का भी अतिरिक्त भार संभाल रहे थे। दूसरे आनंद किशोर हैं, जो अभी सचिव स्तर के अधिकारी हैं, जिन्हें सरकार इतना सक्षम मानती है कि कभी बिहार माध्यमिक परीक्षा बोर्ड का अध्यक्ष बना देती है, तो कभी पटना का कमीश्नर बना देती है, कभी पटना मेट्रो की जिम्मेदारी दे देती है। सच तो यह है कि हाल के वर्षों में सरकार जब-जब किसी इमेज क्राइसिस में फंसी, उन्हें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उस आपदा को हैंडल करने के लिए खड़ा कर दिया। वे अभी इतने प्रभारों में दबे हैं कि केंद्र सरकार ने उन्हें पटना मेट्रो के एमडी का पद देने से ही इनकार कर दिया। लो कर लो बात !
बिहार की नौकरशाही की कहानी यही पर नहीं रूकती है। कार्मिक विभाग के सूची देख लें, तो आपको भी यह पता चल जाएगा कि राज्य सरकार के अधीन इस समय कुल 42 विभाग हैं, इन्हें 33 कैबिनेट मंत्री मिलकर देखते हैं। अव्वल तो यह कि इन विभागों को हेड करने के लिए राज्य सरकार के पास बमुश्किल 13 प्रधान सचिव स्तर के अधिकारी हैं। क्या मुख्यमंत्री को इस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए ? और तो और, ज्यादातर विभागों को सचिव स्तर के अधिकारी ही हेड कर रहे हैं, जबकि कायदे से हर विभाग को संभालने के लिए प्रधान सचिव स्तर का अधिकारी होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि बिहार में वरिष्ठ अधिकारियों की कमी है और इस वजह से ऐसी दिक्कत पेश आ रही है। राज्य के सामान्य प्रशासन विभाग के ही आंकड़े कहते हैं कि राज्य के 33 वरीय अधिकारी जो प्रधान सचिव स्तर की जिम्मेदारी संभाल सकते थे, वे लंबे समय से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं। अगर वे अधिकारी बिहार में होते तो हर विभाग में कम से कम एक प्रधान सचिव तो होता ही। जब अधिकारी नहीं हांेगे, तो सुशासन कैसे जनता तक पहुंचे ?

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