आखिर कितना व्यवहारिक है न्याय ?

नई दिल्ली। अगर तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2008-09 के वैश्विक महामंदी के दौर में वित्तीय मानकों में ढील न दी होती तो भारतीय अर्थ व्यवस्था क्या 6.8प्रतिशत, जो चीन के बाद विश्व में दूसरा सर्वाधिक था, की दर से बढ़ सकता। मैंने योजना आयोग और राज्य सभा दोनों में इस बात पर हमेशा जोर दिया है।  भारत जैसे, लोकतांत्रिक और अत्यधिक असमानता वाले देश में वित्तीय घाटे को काम करना ही आर्थिक नियोजन का सर्वोच्च लक्ष्य नहीं हो सकता। असली चुनौती होगी इस योजना को सही तरीके से क्रियान्वित करना। लेकिन यथेष्ट राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं प्रतिबद्धता से यह संभव हो सकेगा।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने 2019 लोक सभा चुनाव के घोषणा पत्र में यह वायदा किया है कि यदि वह चुन कर सत्ता में आती है तो  ‘न्यूनतम आय गारंटीट लागू करेगी, जो 5 करोड़ सबसे गरीब परिवारों के लगभग 25 करोड़ लोगों को लाभ पहुंचाएगी और उनके लिए 6000 रुपये महीने या 72000 हजार रुपये सालाना की आय सुनिश्चित करेगी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की यह अतिमहत्वाकांक्षी योजना, जिसकी किसी को अपेक्षा नहीं थी, ने एक साथ प्रधानमंत्री श्री मोदी एवं उनके टीम को शह और मात दे दी है, और उन्हें पूरा अधिकार है नाराज होने का, क्योंकि पहले तो वे लोगों तक अच्छे दिन नहीं पहुंचा सके और अब उनके हाथ से पहल करने का यह अवसर भी जाता रहा जिसने कांग्रेस को 2019 के विमर्श को बदलने का अवसर दे दिया।

चलिए, हम कांग्रेस पार्टी की इस योजना पर उठाए जा रहे संदेह और आलोचनाओं पर कुछ बातें करते हैं। सबसे पहले इस प्रश्न को लेते हैं कि 12000 रुपये की यह आय सीमा तक कैसे पहुंच गया। तो इसका उत्तर यह है कि यूपीए सरकारों ने 2005 (तेंदुलकर) और 2012 (रंगराजन) आयोगों का गठन किया था गरीबी रेखा की नीचे की आय तय करने के लिए। दोनों ने ही पांच सदस्यों के परिवार को इसके लिए मानक माना। रंगराजन आयोग के अनुसार गावों और शहरों में क्रमश: आय (खर्च के आधार पर) 4860 एवं 7035 रुपये गरीबी रेखा की सीमा बताई, जो यदि वर्तमान महंगाई दर एवं खर्च के अनुसार प्रक्षेपण किया जाए तो लगभग, 12000 का आंकड़ा आता है।

दूसरी बात यह कि सबसे गरीब परिवार की आय भी लगभग 6000 रुपये अनुमानित है। इस तरह उसे गरीबी रेखा को पार करने के लिए लगभग 6000 रुपयों की अतिरिक्त आय की आवश्यकता होगी, और यह योजना प्रत्येक सर्वाधिक गरीब परिवार को 6000 रुपयों की न्यूनतम आय सहायता सुनिश्चित करेगी, चाहे उनकी वास्तविक आय कुछ भी हो। तीसरा यह कि इस योजना की लागत लगभग 3 लाख करोड़ रुपये होगी जो कि सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) का 1 प्रतिशत है। तो आगे प्रश्न यह कि इतना धन कहां से आएगा? इसमें कोई समस्या नहीं आनी चाहिए। आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के अनुमान के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था 2018 में सांकेतिक मूल्य पर लगभग 185 लाख 12000 करोड़ रुपयों का है और यह विश्व की 7वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तो आबादी की सबसे निचले 20 प्रतिशत उत्पादन का 1.9 प्रतिशत पर अधिकार करेंगे और क्यों न करें? जब केन्द्र सरकार प्रति वर्ष अपने कर्मचारियों पर लगभग 1 लाख करोड़ खर्च करती है।

7वें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद, (45 लाख वर्तमान और 40 लाख सेवानिवृत्त) और लगभग इतनी ही रकम तेल कंपनियों की सब्सिडी पर भी खर्च करती है, तो देश के सबसे गरीब 25 करोड़ लोग 3.6 लाख करोड़ या उत्पाद का 1.9प्रतिशत के ह$कदार क्यों न हों।और आखिर कौन हैं यह सबसे गरीब लोग, समाज के वंचित तबके जैसे कि अनुसूचित जाति, जनजाति, विधवा महिलाएं, बच्चे, दस्तकार और झुग्गियों के निवासी। लेकिन फिर भी इस योजना के लिए अतिरिक्त संसाधन तो जुटाने ही होंगे, चाहे अमीरों और अति अमीर लोगों पर प्रत्यक्ष कर बढ़ा कर, या फिर मनरेगा जैसी योजनाओं को समावेशित करके, और फिजूल खर्चों में भारी कटौती करके। लेकिन ऐसा करते वक्त इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता पर होने वाले खर्च में कोई कटौती न की जाए बल्कि उन्हें प्रगतिशील तरीके से बढ़ाया जाए।

चौथी यह बात कि इससे वित्तीय स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, तो मेरा यह मानना है, कि पूरा 1 प्रतिशत वित्तीय घाटे के हिस्से में नहीं जायेगा। लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘वित्तीय अपव्ययट और जायज विकास और जनहित सम्बंधित खर्च में अंतर करना बहुत जरूरी है। अगर तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2008-09 के वैश्विक महामंदी के दौर में वित्तीय मानकों में ढील न दी होती तो भारतीय अर्थ व्यवस्था क्या 6.8प्रतिशत, जो चीन के बाद विश्व में दूसरा सर्वाधिक था, की दर से बढ़ सकता। मैंने योजना आयोग और राज्य सभा दोनों में इस बात पर हमेशा जोर दिया है।  भारत जैसे, लोकतांत्रिक और अत्यधिक असमानता वाले देश में वित्तीय घाटे को काम करना ही आर्थिक नियोजन का सर्वोच्च लक्ष्य नहीं हो सकता। असली चुनौती होगी इस योजना को सही तरीके से क्रियान्वित करना। लेकिन यथेष्ट राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं प्रतिबद्धता से यह संभव हो सकेगा।

अपने वादों को पूरे करने में पूरी तरह नाकाम होने के बाद, भाजपा और स्वयं प्रधानमंत्री गहरी निराशा में थे। नोटबंदी, हड़बड़ी में और बेतरतीब लागू की गई जीएसटी, राफेल विवाद, जैसे अनेक मुद्दों के अलावा देश भर में छाया कृषि संकट और ग्रामीण असंतोष, बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक असमानता, दलितों और अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधान सभाओं में मिली हार, सबने मिलकर भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। और अयोध्या का तुरुप का पत्ता भी अब काम का रह नहीं गया है।

इसके बाद आता है पुलवामा का हमला, और उसके बाद हुए, बालाकोट में मसूद अजहर के कैम्प पर हुए हवाई हमले। प्रधानमंत्री एवं उनकी टीम बालाकोट को राष्ट्रवाद के उबाल से चुनावी लाभ का प्रयोग मानने लगे। जब विपक्ष ने बालाकोट हमले पर संदेह व्यक्त करते हुए, सवाल उठाए तो प्रधानमंत्री ने उनके देश प्रेम पर ऊंगली उठाई जैसे कि देश प्रेम पर उनका एकाधिकार हो। यह बात हास्यास्पद है।

और फिर मोदीजी और उनके साथी यह कैसे भूल गए कि उन्हें इस देश का मात्र 31 प्रतिशत मत मिले थे और उनके विरोध में 69 प्रतिशत मत पड़े थे।  यही उनके कुंठा का कारण है और उन्हें अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती हुई दिख रही है। और अब सबसे गरीब परिवारों को सालाना 72000 रुपयों की सहायता योजना की घोषणा ने उन्हें और परेशानी में डाल दिया है, और चुनाव का विमर्श कांग्रेस की तरफ मोड़ दिया है। मुझे आगामी चुनावों में कांग्रेस के बढ़त की पूरी सम्भावना दिख रही है।

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