मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल की आत्मा है गांव 


नई दिल्ली। महात्‍मा गांधी कहा करते थे कि भारत गांवों में बसा हुआ है, लेकिन हम देख रहे हैं कि आजादी के इतने सालों के बाद, गांव और शहर के बीच खाई बढ़ती ही चली गई। जो सुविधाएं शहर में हैं क्‍या गांव उसका हकदार नहीं है क्‍या? बेशक बेहतर शिक्षा और रोजगार की लालसा लिए लोग गांवों से पलायन करने को मजबूर हुए हैं, लेकिन उनके मन में आज भी गांव है। उनकी आत्मा की पुकार गांव की है। इसी सोच को धरातल पर लाने के लिए मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक गांव को सर्वाधिक महत्व देते हैं।

मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों का कहना है कि मिथिला के गांवों में पिछले सदी तक फल-फूल रही, स्वायत्त ज्ञान परंपरा (जो कुछ खास गांव में कम-से-कम संसाधनों में नैयायिकों और मीमांसकों के घरों से चलती थी), जिसमें राज्य या कोई अन्य सत्ता न तो पाठ्यक्रम तय कर रही था न ही डिग्री और परीक्षा का यह विकृत, जानलेवा, बाजारोन्मुखी, भौतिकवादी  स्वरूप कहीं से भी ग्रामीण लोक समाज पर इस कदर हावी था। अपेक्षा ज्ञान संकलन और आत्मविद्या से परिमार्जन की थी, महज रोजगार की नहीं. मनुष्य को, युवा को महज रोजगार का माध्यम नहीं समझा जा रहा था, इसी ज्ञान परंपरा के ह्रास से संभवतः राज्य, रोजगार और शिक्षा को आवंटन करनेवाली प्रबल शक्ति बनती चली गयी और लोक की, गांवों की स्वायत्तत्ता अपनी आत्मविद्या के बल पर  कभी एक  पुख्ता रिस्पांस नहीं  खड़ा कर पायी, जो राज्याश्रय के बिना भी अपनी ज्ञान-परंपरा को अक्षुण्ण रख सकता था और आज हालत यह है कि हम दान नहीं, बल्कि अनुदानों के कुचक्र में अपनी स्वायत्तता को तलाशने का भागीरथ और असफल प्रयास कर रहे हैं.   वहीं मिथिला के कलेक्टिव विजडम, विपन्नता का विलास और कॉमन रिसोर्सेज के स्वतःस्फूर्त लोक उत्पत्ति का बड़ा ही रोचक नमूना था, यह किस्सा दरभंगा के दिग्धि-चमैनिया पोखरि के उत्त्पति का था, जहां पोखर खुदवा कर अंततः एक सर्वसामान्य के हित में निर्णय लिया जाता है। आखिरकार दर्शन का इससे उजागर चरित्र हम कहां तलाश सकते हैं, जहां जनसामान्य का जीवन एक दर्शन, नीति से चलता हो?

संभवतः इतनी स्वायत्तता बिरले ही आज कोई विवि वा शैक्षणिक संस्था सीखा पाये. मसला यह है कि यह लेयर्ड विजडम गया कहां? तालाब कहां गये और जातिगत प्रपंचों को इन जैसे प्रकरण क्यों नहीं दिशा दिखा पाये? चैदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध मैथिल विद्वानों अयाची (भवनाथ मिश्र) और शंकर मिश्र का चैपाड़ी  ही इनका ज्ञान केंद्र था.  किसी भवन, राजभवन और राज्य के इंफ्रास्ट्रक्चर पर आश्रित हो इनकी ज्ञान परंपरा ने दम नहीं तोड़ा, बल्कि गांव के खुले परिवेश में बिना किसी बंधन, भेदभाव की बाध्यता के बगैर उनके ज्ञान का विमर्श चलता रहा. अब आवश्यक है कि ज्ञान परंपरा को उसके मूल ग्राम्य परिवेश से जोड़कर ही किसी विकास का मॉडल तैयार हो. सवाल यह भी है कि पंद्रहवीं सदी के शंकर मिश्र की चैपाड़ी जैसी ज्ञान-परंपरा, शिक्षा के  प्रारूप पर अभी तक विमर्श क्यों नहीं हो रहा, क्यों आज के राज्य और लोक ऐसे ओपन स्पेस की स्वायत्तता को मूल्य नहीं दे रहे?गांव अभी मरे नहीं और शंकर मिश्र का चैपाड़ी अपना स्वरूप बदल कर ही सही, फिर से ज्ञान-परंपरा का केंद्र बनने की क्षमता रखता है। ऐसी ही मान्यता के साथ हम साहित्य, दर्शन, कला, विरासत, स्थापत्य, विज्ञान का केंद्र गांव को मानते हुए गांव को ही अपने मानस-केंद्र में रखते हैं, गांधी ने भी मुक्ति गांवों में ही देखी थी।

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